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पहांदी पारी कुपार लिंगो किये गये कार्य

गोंड समुदाय में प्रचलित कथासारों के अनुसार पहादी पारी कुपार लिंगो का गोंडी पुनेम प्रचार कितना और कहां तक हो चुका था इसका प्रमाण मिलता है। पारी कुपार लिंगो के अनुयायियों की संख्या सर्व प्रथम मण्डुन्द कोट (नीस) थी जिस भूभाग पर उसके अनुयायियों ने गोंडी पुनेम का प्रचार किया था उसे कोयमूरी द्वीप कहा जाता था। कोयमूरी दीप के कुल चार संभाग थे (१) उम्मोगुट्टा कोर (२) अफोकागुट्टा कोर, (३) सईमालगुट्टा कोर और (४) येरूगुट्टा कोर गोंडी पुनेमी मूठ लिंगो मंत्रों से उक्त कोयमूरी दीप के चार संभागों में पुर्वाकोट, मुर्वाकोट, हर्वाकोट, अमूरकोट, सिर्वाकोट, वर्वाकोट, नवकोट, सर्वाकोट, येरगुडाकोट, पेंडूरकोट, पतालकोट, चीतेरकोट, आदिलकोट, लंकाकोट, सुडामकोट, परंदूलकोट, कीरंदूलकोट, साबूरकोट, सियालकोट, सुमेरकोट, उमेरकोट, सिनारकोट, मीनारकोट आदिगण्डराज्य और नरालमादाल, जवाराल, महादाल, सोनगोदाल, मयान, पेनगोदा, वेनगोदा, पेन्कटोडा, गोंदारी, खोबरी, संभूर, मागोडगूरी भारेट, टागरी, उटगरी, पनीर, पेनाल आदि नदियां, उम्मोली सिंथाली, बिंदरा, कजोली, रोमरोमा, भिमागढ़, आऊटबंटा, निलकोंडा, सयमंडी, सिवाडी, पुल्ली मेट्टा, पेडूममेट्टा, बाकाल मेट्टा आदि पर्वत थे। उक्त सभी गण्डराज्य, नदीनाले, पर्वतमालाए और जंगलों की स्थल निश्चिति गोंडवाना जीव जगत उत्थान पतन और पुनरुत्थान संघर्ष की लेखिका चंद्रलेखाजी ने अपने उक्त पुस्तक में किया है। उक्त सम्पूर्ण परिक्षेत्र एवं भूभाग में गोंडी पुनेम का प्रचार एवं प्रसार कार्य किया गया था, इस बात की पुष्टि होती है, जो गोंड समुदाय के लिए स्वाभिमान याने गर्व की बात है।

उपरोक्त सभी गण्डराज्य, नदीयां, पर्वत और वनों का परिक्षेत्र कोया वंशीय गोडीवेन समुदाय के कोयगूरी दीप में थे, जिसे सिंगार दीप कहा जाता था। इतने बड़े विशालतम परिक्षेत्र को देखकर गोंडी पुनेम का प्रचार एवं प्रसार कितने बड़े भूभाग में हो चुका था इस बात की सत्यता प्रबुध्द पाठकों के समझ में आ सकती है। उसी तरह इस वर्तमान भारत वर्ष का सर्व प्रथम पुनेम कोया वंशीय गोंड समुदाय का गोडी पुनेग हैं उसके पश्चात आर्य, वैदिक हिन्दु, जैन, बौद्ध, शिख, इसाई, पारसी आदि धर्मों का उदय हुआ। 
अब इस अद्वितीय गोडी पुनेग गुरु पहांदी पारी कुपार लिंगोने इस भूतल पर जन्म लेकर कौन कौन सा कार्य किया है, उस पर गौर करने पर निम्न बातें दृष्टिगोचर होती हैं।

१. प्राचीन कोयगूरी द्वीप में जो बार संभाग थे उन चारों संभागों में जो कोया वशीय गण्डजीव नदी नालों के किनारे छोटे छोटे गण्डराज्य थे और अपने अपने गण्डराज्यों के विस्तार के लिए आपस में लड़ाई झगड़े तथा संघर्ष किया करते थे, उन सभी को सगावेन युक्त सामुदायिक व्यवस्था में संरचित कर एक दूसरे के साथ पारी (वैवाहिक) संबंध प्रस्थापित करने के नियम पहांदी पारी कुपार लिंगोने प्रस्थापित किया, जिससे आपसी संघर्ष समाप्त होकर उनके बीच भाईचारे एवं सगा संबंधियों का नाता स्थापित हुआ।

२. पारी कुपार लिंगोने अपने बौध्दिक ज्ञान प्रकाश से प्रकृति के यथार्थ रूप के रहस्यों को पहचाना। उसके क्रिया कलापों की सर्वोच्च शक्ति को फड़ापेन, (परसापेन, बुढालपेन, सजोरपेन) संज्ञा से संबोधित किया। उनके अनुसार प्रकृति में सल्लां और गांगरा यह दो पूना ऊना (धन-ऋण) परस्पर विरोधी सत्व है। जिनकी आपसी क्रिया प्रक्रिया से प्रकृति का चक्र चलायमान है। इस प्रकृति को किसी ने बनाया नहीं। वह पहले भी थी, आज भी है और भविष्य में भी रहेगी। उसमें मात्र परिवर्तन होता रहता है। इस सत्यता को कोया वंशीय जीवगण्डों को समझाकर बताया जो आज भी उसी शक्ति की उपासना करते हैं।

३ प्राकृतिक कालचक्र में स्वयं को समायोजित कर अपना अस्तित्व बनाए रखने हेतु सबल और बुध्दिमान नवसत्त्व कोया वंशीय समुदाय में निर्माण होना चाहिए, यह जानकर उसने अपने बौध्दिक ज्ञान बल से सम विषम गुण संस्कारों के अनुसार सगावेन घटक युक्त सामुदायिक व्यवस्था प्रस्थापित किया और सम-विषम गोत्र, सम विषम गोत्र चिन्ह, और सम विषम सगावेन घटकों में पारी (वैवाहिक) संबंध प्रस्थापित करने का मार्ग बताया। क्योंकि दो परस्पर विरोधी गुणसंस्कारों के क्रिया प्रक्रिया से ही सबल और बुध्दिमान नवसत्व निर्माण हो सकते हैं, इस प्रकृति के रहस्य को उसने सर्व विदीत किया। कोया वशीय गोंडी सगावेन गोंदोला की सामाजिक व्यवस्था विश्व की सर्व श्रेष्ठतम और उच्च कोटि के मूल्यों से परिपूर्ण व्यवस्था है।
४. गोंडी पुनेम का अंतिम लक्ष सगा जन कल्याण साध्य करना है। उसके लिए इस पंचखण्ड धरती के प्रथम संभू शेक कोसोडूम के द्वारा प्रतिपादित की गई "मुंदशूल" मार्ग के आधार पर जय सेवा मार्ग बताया। जय सेवा याने सेवा भाव का सदा जयजयकार हो अर्थात् एक दूसरे की सेवा करके ही सगाजनों और प्रकृती के अन्य सभी जीवाश्मों का कल्याण साध्य किया जा सकता है। पारी कुपार लिंगो का मुंदशूल सर्री मनुष्य के बौध्दिक, मानसिक और शारीरिक अंगों से संबंधित है, जिसके द्वारा चलकर सभी जीवों का कल्याण साध्य होता है।

५. मनुष्य इस प्रकृति का ही अंश है। अतः प्रकृति के अन्य सत्वों की सेवा उसे सदा प्राप्त होती रहे इसलिए प्राकृतिक संतुलन बनाए रखना अनिवार्य है। कोया वंशीय गोंडीवेन सगा समुदाय को उसने कुल ७५० कुलगोत्रों में विभाजित किया और प्रत्येक कुलगोत्र के लिए एक पशु, एक पक्षी तथा एक वनस्पति को कुलचिन्ह के रूप में आवंटित किया। प्रत्येक कुलगोत्र धारक अपने कुलचिन्ह से संबंधित प्रकृति के सत्वों की सुरक्षा करते हैं। और अपने कुलचिन्हों के सत्वों को छोड़कर अन्य जीव सत्वों का मात्र आवश्कता नुसार भक्षण भी करते हैं। इसतरह ७५० कुल गोत्र धारक कोयमूरी दीप के कोया वंशीय गोंडी सगावेन गोंदोला के जीवगण्ड एक साथ २२५० प्राकृतिक जीव सत्वों की एक ओर सुरक्षा भी करते है तो दूसरी ओर उतने ही सत्वों की आवश्यकता नुसार भक्षण भी करते हैं, जिससे प्रकृति का संतुलन बना रहता है। इस तरह सभी जीवों को प्रकृति की सेवा निरंतर प्राप्त होती रहे, इसलिए प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने हेतु गोंडी पुनेम मुठवा पहांदी पारी कुपार लिंगोने कोया वंशीय सगावेन गोंदोला के जीवगण्डों को गोंडी पुनेम का मार्ग बताया। जो आज भी कायम है।

६. संपूर्ण कोया वंशीय समुदाय को सगायुक्त सामाजिक संरचना में विभाजित करने के पश्चात उस सगावेन घटकयुक्त सामुदायिक व्यवस्था को पोषक हो ऐसे व्यक्तित्व नववंश में घड़ाने हेतु पहांदी पारी कुपार लिंगो ने हर ग्राम में गोटुल नामक संस्कार एवं शिक्षा केंद्र की संस्थापना की। उसमें छोटे बालबचों को उम्र के तीन साल से लेकर अठारह साल तक उचित शिक्षा प्रदान करने का कार्य पारी कुपार लिंगोने शुरू किया। उक्त गोटुल संस्था में छोटे बालबच्चों की मानसिक शक्ति एवं प्रवृत्तियों का विकास, उनके उपयोजन गुणों का विकास, उनके व्यवहारिक क्षमताओं का विकास, शारीरिक स्वास्थ्य और संवर्धन क्षमताओं का विकास साध्य करने के लिए गांव गांव में ज्ञाता गोटुल प्रमुखों की नियुक्ति करने का मार्गदर्शन किया। इस पर से कोया वंशीय जीवगण्डों का सर्वांगिण विकास साध्य करने हेतु पारी कुपार लिंगोने अपने गोंडी पुनेम दर्शन में बौध्दिक, शारीरिक और मानसिक विकास को अधिक महत्व दिया है।

७. कोया पुनेम गुरु पारी कुपार लिंगोने कोया वंशीय सगावेन समुदाय के गण्डजीवों को पाचं वंदनीय एवं पूजनीय सत्व प्रदान लिए हैं १) सगा, २) गोटुल ३) पेनकड़ा ४) पुनेम और ५) मुठवा इन पांच सत्वों को गोंडी पुनेम का मूलाधार कहा जाता है। सगा याने सगावेन घटक युक्त सामुदायिक व्यवस्था, गोटुल याने शिक्षा तथा संस्कार केंद्र, पेनकड़ा याने सर्वोच्च शक्ति का उपासना स्थल, पुनेम याने जीवन का सत्मार्ग और मुठवा याने गोंडी पुनेम सार के ज्ञाता गण्डजीव। इन पांच वंदनीय एवं पूजनीय सत्वों को आदर्श मानकर उस अनुसार चलने से सगाजीवों का कल्याण साध्य किया जा सकता है।

८. प्राकृतिक न्याय तत्त्वपर आधारित मुंजोक अर्थात् अहिंसा दर्शन का सिध्दांत भी पहांदी पारी कुपार लिंगोने प्रतिपादित किया है। “मान मतितुन नोय सिअवा, जोक्के जीवातुन पीसीहवा, जीवा सीयेतुन हिले माहवा, जीवा ओयेतुन हिले 'ताहवा," पहादी पारी कुपार लिंगो का यह गोंडी पुनेमी मुंजोक सिध्दांत एक ऐसा अनोखा दर्शन है, जो प्रकृति के न्याय दर्शन पर आधारित है।

९. सत्यमार्ग से चलने के लिए सगा पुय सर्री, सगा पारी पुय सर्री, सगा संगी पुय सर्री, सगा सेवा पुय सर्री और सगा मोद पुय सर्री यह पुनेम विचार उसने कोया वंशीय सगावेन समुदाय के जीवगण्डों को दिया है, और यही वजह है कि इस पुनेम के मार्ग पर चलने से कोया वंशीय सगावेन गोंदोला के गण्डजीवों में शतप्रतिशत सत्यनीति, इमानदारी, सेवाभाव और सत्यवाणी ही हर पल और हर कदम पर दृष्टिगोचर होता है।

१०. संभू शेक की जो समकालीन जोड़ी थी, जिसे संभू-गवरा की जोड़ी से जाना जाता था के डमरु (गोएन्दाड़ी) की आवाज से पारी कुपारी लिंगोने गोएदाड़ी वाणी की रचना की और उसी वाणी से गोंडी पुनेम का प्रचार एवं प्रसार किया।
उक्त सभी बातों को अकेले लिंगोने करना याने कम आश्चर्य की बात नहीं है। उसके जो मंडून्द कोट शिष्य थे, जिन्हें कोया वंशीय गोंडी सगावेन समुदाय के गण्डजीव अपने सगा देवताओं के रूप में मानते हैं, उनके माध्यम से पारी कुपार लिंगोने गोंडी पुनेम का प्रचार कार्य किया। कोयामूरी दीप का सम्पूर्ण कोया वंशीय समुदाय गोंडी पुनेम का उपासक बना। पारी कुपार लिंगो द्वारा रचित गोंडवाणी को स्वीकार कर सगावेन युक्त व्यवस्था को अपनाया, जिसे गोंदोला व्यवस्था कहा जाता है। गोंदोला के सदस्य गोंड संज्ञा से जाना जाने लगे। सगावेन व्यवस्था को अपनाने से वे गोंडीवेन बने और गोंडी वेनों की व्यवस्था जिस प्राचीन कोयमूरी दीप में फल फूली, वह भूभाग गोंडीवेनों का गोंडवाना संज्ञा से नामांकित हुआ।

के जल गोंडी गण गाथा के अनुसार प्राचीन काल में जब कोयमूरी दीप में महा प्रलय हुआ था, तब अमूरकोट नामक एक मात्र ऐसा पर्वत था जो समुद्र की सतह से ऊपर दिखाई दे रहा था। अमूरकोट को वर्तमान में अमरकंटक पर्वत कहा जाता है। जहां महाप्रलय के बाद एक मात्र फरावेन सईलांगरा का जोड़ा जीवित था। फरावेन सईलांगरा याने ज्येष्ठ दाऊ दाई ने वहां आदि रावेन पेरियोर और सुकमा पेरी को जन्म दिया, जिन्होंने सिंगार दीप में आकर अपना वंश विस्तार किया। इसतरह ज्येष्ठ दाऊदाई शक्ति (फरावेन सईलांगरा) की कोया से जन्म लेनेवाला कोया वंशीय समुदाय फरावेन सईलांगरा की उपासना परसापेन सल्लां गांगरा शक्ति के रूप में आज भी करता है। अमूरकोट में आज भी कोया वंशियों की जन्मस्थली है, जिसे वंश भिड़ी कहा जाता है, जहां से फरावेन सईलांगरा रुपि ज्येष्ठ दाऊ-दाई शक्ति का प्रतिक नर मादा नदी अपने कोया पीलांग धारा को लेकर प्रवाहित हुई है। जिसके किनारे कोया वंशीय जीवगण्डोंने सर्व प्रथम अपना विस्तार किया और बाद में संपूर्ण कोयमूरी दीप में नदीनालों के किनारे वे फैल गए। उन्होंने अपने निवास हेतु सर्व प्रथम गुफा, कंदरों और कोपों को प्रयोग किया और संख्या बढ़ जाने पर अपने ग्राम बसाये एवं सुरक्षा हेतु कोट निर्माण किए। उनका विस्तार कोईमूरी दीप के उम्मोगुट्टा कोर, सईमाल गुट्टा कोर, येरगुट्टा कोर और अफोका गुट्टा कोर इन चारों संभागों के अनेक कोटों में हो चुका था। ऐसे ही पेन्कमेढ़ी कोट के कुलीतरा कोट प्रमुख के परिवार में एक कोसोडूम नामक पुत्र ने जन्म लिया, जिसने अपने पराक्रम से पंच खण्ड धरती पर अपनी अधिसत्ता प्रस्थापित की और सयुंग भूई का प्रथम संभू शेक बना जिसकी पत्नी मुलादाई थी। इसलिए प्रथम संभू की यह जोड़ी संभू मूला के नाम से आज भी पूजनीय एवं वंदनीय है। संभू मूला के जोड़ी ने पंच खण्ड धरती के सभी जीवगण्डों का कल्याण साध्य करने हेतु मुंदशूल मार्ग प्रतिपादित किया जिसे त्रिशूल मार्ग या वैगुण्य शूल मार्ग कहा जाता है, जो मनुष्य के बौध्दिक, शारीरिक और मानसिक अंगों से संबंधित है। इस सयुंग भूई दीप में एक के बाद एक ऐसे अरुरु संभू हुए जिन्होंने सतपुड़ा के पेन्कमेढ़ी कोट से अपनी अधिसत्ता चलाई जिसमें से संभू गवरा की जोड़ी के कार्यकाल में पहांदी कुपार लिंगोने गोंडी पुनेम की संस्थापना की।

गोंडी पुनेमी गण्डजीवों का विस्तार उम्मोगुट्टा कोर पर्वतीय मालाओं के परिक्षेत्र में जो प्राचीन मुर्वाकोट, हर्वाकोट, पुर्वाकोट आदि गण्डराज्य थे उनके उसपार भी कोन्दाकोट, कोन्दाबुल कोट, और सुमेरकोट तक हो चुका था। उम्मोगुट्टा कोर परिक्षेत्र के मुर्वा कोट और हर्वाकोट ही आज के मोहनजोदड़ो और हड़प्पा नगर हैं, जिनके पुरावशेष पुरातत्व विदों को प्राप्त हो चुके हैं। इन्हीं गण्डराज्यों को आर्यों ने अपने प्राचीन ग्रंथ ऋगवेद में मुर्विदुर्योण और हरयुपिया नामों से संबोधित किया है।

कोया वंशीय गोंडीवेन समुदाय के इस विकसित होने की प्रक्रिया में कई करोड़ों वर्षों की कालावधि अवश्य लगी होगी। पंचखण्ड धरती के राजा संभू मूला की जोड़ी ने जीव जगत का कल्याण साध्य करने हेतु जो तीनशूलों युक्त जीवन मार्ग प्रतिपादित किया था उसके अनुसार सभी संभू इस पंच खण्ड धरती के जीव जगत की सेवा निरंतर करते रहे। वे सभी जीवों के स्वामी थे, इसलिए उन्हें गोंडी में जायजन्तोर राजाल अर्थात् पशु पक्षियों का स्वामी कह जाता था। संभू गवरा के जीवन काल में गण्डोदीप के कोया वंशीय गण्डजीवों की बोली, भाषा, संस्कृति के साथ साथ कोट और गण्डराज्यों की व्यवस्था, कृषि अर्थ व्यवस्था आदि का निश्चित रूप से विकास हो चुका था। नार, गुडा, कोट एवं गढ़ों की व्यवस्था प्रस्थापित हो चुकी थी। किन्तु उनमें सुनियोजित जीवन जीने के मूल्यों का अभाव था। संभू गवरा के जीवन काल में यादमाल कोट के यादराहुड कोट प्रमुख की कन्या कलिया कुवारी (कली कंकाली), परंदुलीकोट के कोषाल पोय गणप्रमुख की कन्या रायतार जंगो और पुर्वाकोट के पुलशीव गणप्रमुख के पुत्र रूपोलंग ने जन्म लिया। इन तीनों महान जीवोंने अपने जीवन में सम्पूर्ण कोयमूरी दीप के चारों संभागों में निवास करनेवाले कोयावंशीय समुदाय के गण्डजीवों को विशेष सामुदायिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक मूल्यों से परिपूर्ण नया जीवन मार्ग प्रदान किया। दाई कली कंकालीने संगावेनों को जन्म दिया, दाई रायतार जंगोने उनका परवरिश किया, दाई गवराने उन्हें अपने आचल में बिठाकर दूध पिलाया, दाऊ संभू शेक ने उन्हें उचित जीवन मूल्यों की शिक्षा प्रदान करने हेतु कोयली कचाड़ कोप में बंद किया, और संभू गवरा के मार्ग दर्शन पर रुपोलंग पहांदी पारी कुपार लिंगों ने हीरासुका पाटालीर की मदत से मुक्त कर अपने शिष्य बनाया तथा गोंडी पुनेमी मूल्यों से शिक्षित एव दीक्षित कर उनके माध्यम में सम्पूर्ण कोया वंशीय जीवगण्डों को सगावेन घटक युक्त सामुदायिक संरचना से संरचित किया। संभू गवरा के गोएन्दाड़ी की सूर लेंग को पहचान कर पहांदी पारी कुपार लिंगोने गोएन्दाड़ी वाणी की रचना की, जिसके माध्यम से उसने अपना पुनेम प्रचार किया। वही गोएन्दाड़ी वाणी कोया वंशीय गोंडी गोंदोला के गण्डजीवों की गोंडवाणी बनी हैं। जो कई हजारों वर्ष प्राचीन है।

लिंगोने सर्व प्रथम फरापेन सल्लां गांगरा शक्ति को मुख्य पेन गढ़ अमूरकोट में प्रतिस्थापित किया, जहां पर नरमादा, दाऊदाई शक्तिने कोया वंशियों के मूल गण्डजीव आदि रावेन पेरियोर और आदि सुकमा पेरी को जन्म दिया था। कोयली कचाड़ लोहगढ़ को सगावेनों की मुक्तिभूमि बनाया, लांजीकोट को गोंडी गण्डजीवों के सगावेनों की मूल नाभी बनाया और तत्पश्चात सात सौ पचास गोत्रजों के पृथक पेनगढ़ स्थापित कराया। प्रत्येक गोत्र धारक को एक प्राणी, एक पक्षी और एक वनस्पति ऐसे कुल तीन तीन गोत्र चिन्ह आवंटित कर उन्हें सगावेन समुदाय में संरचित किया। इसी दौरान सिंगार दीप के विद्यमान संभू-शेक की जोड़ी संभू-गवरा वेनरुप से पेनरुप अवस्था में विलिन हो गई। अर्थात् उनको जीवन कालमर्यादा समाप्त हो गई और उनके उत्तराधिकारी के रूप में संभू बेला की जोड़ी ने सिंगार दीप का कार्यभार संभाला। गोंडी पुनेम मुठवा पहादी पारी कुपार लिंगो और विद्यमान संधू शेक की जोड़ी संभू बेला ने उनके पूर्व संभूशेक की जोड़ी "संभू-गवरा" के और उनके वाहन नांदीयाल कोंदा के स्मृति में नांदियाल कोंदा के साथ संभू-गवरा पिण्ड" की प्रतिस्थापना पेनमेढ़ी और अमूरकोट में की। तत्पश्चात गण्डोदीप में जहां जहां गोंडीवेनों का विस्तार होता गया, वहां वहां संभू-गवरा के पिण्डों की संस्थापना धरती के स्वामी के रुप में वे करते गए। यह कार्य गोंडी पुनेम मुठवा पहांदी पारी कुपार लिंगो के मार्गदर्शन से उसके मण्डुन्द कोट अनुयायियों के द्वारा होते रहा, इसलिए उसे लिंगो-पिण्ड भी कहा जाता है।

संभू - गवरा के स्थापित पिण्ड को “सयूं-भूई" शक्ति अर्थात् “पंच खण्ड धरती की शक्ति" ऐसा भी कहा जाता है। संभू गवरा के पश्चात इस गण्डोदीप के स्वामी संभू बेला, संभू-मूरा, संभू-तुलसा, संभू उमा, संभू-गिर्जा, संभू-सत्ती, संभू पार्वती आदि "नालनरु" (उनचास) संभू शेक हुए तथा उनके समकालीन जो भी गोंडी पुनेम मुठवा लिंगो बने वे सभी सल्लां गांगरा शक्ति के साथ साथ संभू गवरा पिण्ड के भी उपासक रहे। सिंगार दीप के स्वामी संभू शेक की अनुमति प्राप्त किए बिना तथा उसकी अधिसत्ता मान्य किए बिना इस कोया वंशीय गोंडी पुनेम गोंदोला के गण्डजीवों की धरती पर कोई भी बाहरी व्यक्ति प्रवेश नहीं पा सकता था। इस धरती में प्रवेश पाने, यहां स्थाई रूप से बसने अपना वंश विस्तार करने और मरणोपरान्त इसी धरती में समाधिस्त होने हेतु इस धरती के राजा संभूशेक की अनुमति पाकर राजस्व चुकाना पड़ता था। इसलिए संभूशेक को सयूं भूई के संभू “स्वयंभू", गण्डजीवों के गण्ड महागण्ड, देवों के देव महादेव, नाथों के नाथ महानाथ, कालों के काल महाकाल, डोमों के डोम महाडोम, लिंगो के लिंगो महालिंगो आदि संज्ञाओं से जाना जाता है। संभू- गवरा के पश्चात उसके उत्तराधिकारी संभूशेकों और लिंगोओं के द्वारा गोंडवाना द्वीप समूहों में सभी ओर जहां जहां कोया वंशीय गण्डजीवों का निवास था वहां वहां संभू-गवरा पिण्डों की स्थापना की गई। यह कार्य वर्तमान सतपुड़ा के पेन्कमेढ़ी और अमरकंटक (अमूरकोट) के बंशभीड़ी से आरंभ होकर संपूर्ण पचखण्ड धरती में इसका प्रचार एवं प्रसार हुआ। अफगानीस्थान में इस पांच द्वीपों के स्वामी शंभूशेक के पिण्ड को पंचशेर या पांचशीर कहा जाता है। ग्रीक में प्रचलित “शेबोन" पूजा भी पांच द्वीपों के स्वामी की पूजा है। शेबोन या हेबोन का अर्थ ही ग्रीक भाषा में पांच द्वीप ऐसा होता है। वर्तमान भारत में संभू–गवरा पिण्ड का नामांतरण बाद में संभू–गराम, शालीग्राम, शिवगराम, शिवलिंग इसतरह होकर उसे एक विशेष शैव पंथ से जोड़ दिया गया है। इस सिंगार दीप में कोया वंशीय गोंडी गण्डजीवों की पुनेमी पहचान बतानेवाले सभी मूल्यों को प्रतिस्थापित करने का कार्य गोंडी पुनेम मुठवा पहांदी पारी कुपार लिंगोने किया है। इस कार्य को अकेले रुपोलंग पहांदी पारी कुपार लिंगोने नहीं बल्कि उसके सभी सगा शिष्योंने और उनके पश्चात लिंगो उपाधि धारण करनेवाले अनेक महान गोंडी पुनेम के गूठोंने किया है। लिंगो यह गोंडी पुनेम मुठवा की उपाधि है। इस उपाधि को धारण करनेवाले अनेक लिंगो गोंड समुदाय में हो चुके हैं। जैसे कुपार लिंगो, मूठलिंगो, रायलिंगो, भुरालिंगो, महारू लिंगो, भिमा लिंगो, दवगण लिंगो, धन्नातरी लिंगो, गन्नातरी लिंगो, दानूर लिंगो, ओसूर लिंगो, राहूड लिंगो, पोय लिंगो, कोया लिंगो, रावेण लिंगो, मिण्ड लिंगो, भुईण्ड लिंगो, सूर लिंगो, मांझी लिंगो, भुई लिंगो आदि अनेक लिंगो, भुमकाल, मांझी तथा बैगाओं का उल्लेख गोंडी पुनेम सुत्रों में पाया जाता है। कोया लिंगो गण्डो दीप के अंतिम संभूशेक (संभू-पार्वती) के समकालीन था, जब इस दीप समुह में एशिया माईनर के आर्यों का आक्रमण हुआ। संभूशेक की अनुमति के बिना सिंगार दीप में प्रवेश पाना असंभव था। इस दीप में प्रवेश पाने के लिए आर्य जातियों ने सभी तरह के प्रयास किए, परंतु विद्यमान संभूने उनके प्रयासों को विफल कर दिया था। संभूशेक को कूटनीति से अपने वश में करने हेतु आयने दक्ष कन्या पार्वती को इस्तेमाल किया। उसे अनेक प्रकार के नशीली द्रव्यों का आदी बनाया गया। भोले संभू आर्यों की कूटनीति को समझ नहीं पाए। कोया वंशीय गण्डजीवों के दुश्मनों पर आग बरसाने वाले संभू शेक पार्वती के मोहजाल में फसकर सुप्त अवस्था में पहुँच गए। इसतरह गोंड समुदाय के संभूशेक और लिंगो व्यवस्था पर ही आर्योंने अपनी कूटनीति से आघात किया, जिससे संभू और लिंगो व्यवस्था ही खण्डित हो गई। इसके बावजूद भी अनादि काल से संभू और लिंगो द्वारा प्रस्थापित किए गए जीवन मूल्य कई हजारों वर्ष बीत जाने पर भी कोया वंशीय गोंडीवेन गोंदोला के गण्डजीवों के समुदाय में आज भी कायम है।

गोंडवाना गण्डोदीप के गोंदोला निवासी गोंडीवेन गण्डजीवों का मूल उत्पत्ति स्थल की पहचान बतानेवाला अमूरकोट आज भी अमरकंटक के रूप में सीना तानकर खड़ा है। वहीं पर फरावेन सईलांगरा (ज्येष्ठ दाऊ-दाई) नरमादा शक्तिने अपनी कोक से कोया वंशीय गण्ड जीवों के मूल पुरखे आंदी रावेन पेरीयोल और आदि सुकमा पेरी को जन्म दिया था, तत्पश्चात वहां से सिंगार दीप में आकर उन्होंने अपना बेल विस्तार किया। फरावेन सईलांगरा दाऊ दाई का प्रतिक नरमादा नदी अमूरकोट के कोया वंश भीड़ी से उद्गमित होकर कोया पिलांग धारा को लेकर आज भी प्रवाहित है। कोया वंश भीड़ी को वर्तमान में वंश भीरा कहा जाता है। "झर झर नरमादाल वाता रो, कोया वंशीन जीवदान सीता रो" इस गोंडी नृत्यगीत के माध्यम से नरमादा रुपि फरावेन सईलागरा (ज्येष्ठ दाऊ दाई) शक्ति का गुणगाण आज भी गोंड समुदाय में किया जाता है। जिस येरुंगुट्टा कोर संभाग के पेन्कमेढ़ी कोट के कोटप्रमुख कुलीतरा के कुटमार में प्रथम संभू कोसोडुम का जन्म हुआ और वह संभू-मूला की जोड़ी से प्रख्यात होकर सयुंग भूई का राजा बना तथा उसके पश्चात निरंतर अरुरु (अठ्ठाशी) संभूओं की प्रभूसत्ता सत्पूड़ा (सत्ता का केंद्र) पेन्कमेढ़ी कोट से चली, वह पेन्कमेढ़ी कोट पेंचमढ़ी के नाम से आज भी विद्यमान है। संभू मूला से संभू पार्वती तक सभी संभू जीवित थे तबतक उसे वेनमेढ़ी कहा जाता था और उनके अवसानोपरांत सभी वेन से पेनरुप हो गए। इसलिए उसे पेन्कमेढ़ी कहा जाने लगा। पेन्कमेढ़ी का अर्थ देवों की केंद्र भूमि ऐसा होता है। वहां से जो नदी उद्गमित होकर बह रही है उसे गोंडी में पेन्क ढोडा कहा जाता है, जिसका नाम वर्तमान में पेंचनदी है। पेंचनदी रुपि पेन्कढोडा आज भी कोया वंशीय समुदाय के संभूशेकों की श्रृंखलाबध्द गाथा बयान करती है। साल्मेकुल कोट के लांजीगढ़ में अपने सगावेन शिष्यों को शिक्षित एवं दीक्षित कर उन्हें जिस नदी के प्रवाह में पहादी पारी कुपार लिगोंने गोंडी पुनेमी मूल्य एवं प्रथम संभूशेक संभू-मूला के द्वारा प्रतिपादित मुन्दमुन्शूल सर्री (वैगुण्यशूल मार्ग) की शपथ दिलाई थी, वह वेनगोदा आज भी वेनगंगा के रूप में प्रवाहित है। गोंड समुदाय के सगावेन जबतक जीवित थे, तबतक वे वेन रुप में थे और उनके अवसान के पश्चात वे वेनरुप से पेनरुप हो गए, और जिस नदी किनारे उनका गुड्डीगोदा बनाया गया था, वह पेनों का गोदा पेनगोदा नदी आज भी पेनगंगा के रूप में विद्यमान है।

गोंडी पुनेम मुठवा मुठवापोय पहांदी पारी कुपार लिंगो को जिस पर्वत की तराई में सुयमोद (सत्यज्ञान) का साक्षात्कार हुआ, वह कुपार मेट्टा आज भी वर्तमान भंडारा जिले के सालेकसा तहसील में स्थित है। गोंडी सगावेनों को संभू-गवरा ने जिस गुफा में बंद कर रखा था वह कोयली कचाड़ लोहगढ़ गुफा भी आज जैसे थे हावड़ा बम्बई रेल्वे लाईन के दरेकसा रेल्वे स्थानक के पास विद्यमान है। गोंडी सगावेनों की दाई कली कंकाली के माता पिता का यादमाल पुरी कोट आज भी चांदागढ़ के रूप में साक्षात विद्यमान है। गोंडी पुनेम दाई रायतार जंगों का ठाना कोटा परंदुली आंध्रप्रदेश के अदिलाबाद जिले में निलकोंडा पर्वत में स्थित है। गोडी पुनेम के सगावेनों का वेनाचेल आज भी वेनांचल के रूप में झारखंड में है और सगावेनों के दाई का वेनदाई आचेल वैद्याचल के रुप में आज भी वेनदाई (विन्ध्य) पर्वत में हैं। अमूरकोट से समदूर के पानी के प्रवाह में बहकर फरावेन सईलांगरा के बच्चे आदि रावेण पेरियोल और सुकमा पेरी ने सर्व प्रथम जिस सिंगार दीप में अपना वेल विस्तार किया वह सिंगार दीप का भाग सीदी सिंगरोली के रुप में आज भी जाना जाता है। गोंडी पुनेम मुठवा पहांदी पारी कुपार लिंगोने सर्व प्रथम जिस गढ़ से अपना गोंडी पुनेम प्रचार आरंभ किया था वह लिंगोगढ़ अमरकंटक के पास में आज भी है। उम्मोगुट्टा कोर में स्थित बारह नदियों का मागोंडमूरी प्रदेश आज भी मान्टगोमरी के नाम से जाना जाता है। और उसके परिक्षेत्र में स्थित हर्वाकोट, मुर्वाकोट और कोंदाहार कोट आज भी हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और कांधार नाम से जाने जाते है। इस तरह गोंडीवेन गोंदोला के गण्डजीवों के पुनेमी मूल्यों की ऐतिहासिक गाथा वर्तमान भारत का हर एक परिक्षेत्र बयान करता है।

गोंडी पुनेम मुठवा पोय रुपोलंग पहादी पारी कुपार लिंगो ने इस पंच खण्ड धरती पर चारों संभागों में निवास करनेवाले कोया वंशीय गण्डजीवों को बारह सगावेन घटक शाखाओं और कुल सात सौ पचास गोत्रों में विभाजित कर हर एक गोत्र का पृथक पेनगढ़ स्थापित कराया। हर एक गोत्र के सभी गण्डजीव अपने परसापेन या फड़ापेन शक्ति की उपासना अपने अपने पेनगढ़ में किया करते थे। यह व्यवस्था गोंड समुदाय में आज भी कायम है। गोंड समुदाय के गण्डजीवों के यह पेनगढ़ कोई इट, गारा, रेती, सिमेंट या पत्थर से बनाए देवालय नहीं होते बल्कि महुआ, सरई, साजा, पहांदी, पदाम, पीपल, बरगद आदि पेड़ पौदों के स्थल होते है, जिसे पेनठाना, पेनसरना, पेनभिना या पेनकड़ा कहा जाता है। इस पेनगढ़ व्यवस्था के साथ लिगोने राज्य व्यवस्था सुचारु रूप से चलाने हेतु कोट, परगना, गढ़ आदि के रूप में गण्डाराज्यों की प्रतिस्थापना कराई थी। उनके प्राचीन परगना कोट और गण्डराज्यों के प्राचीन अवशेष आज भी जहांतहां विद्यमान हैं। उनकी राज्य व्यवस्था नार गढ़ मोकाशगढ़ या मुंडेदार गढ़, परगना गढ़ और राज्यगढ़ या कोटगढ़ ऐसे चार स्तरों में विभाजीत थी।

ऐसे इस महान कोया वंशीय गण्डजीवों की सभ्यता को सर्व प्रथम इ. स. पूर्व २७०० वर्ष के दौरान ऐशिया माईनर के आर्य जातियों के आक्रमण से क्षति पहुंची। एशिया माईनर के घुमन्तु आर्य टोलियों का आक्रमण मेसोपोटामियां के सुमेटकोट से कोन्दाबुल, कोंदाहार, हर्वाकोट, मुर्वाकोट, कोयलीबेड़ा कोट, पेन्कमेड़ी कोट, अमूरकोट, लंकाकोट, पुरवाकोट, नर्वाकोट तक हुआ। कोया वंशीय गोंडी गोंदाला के गण्डजीवों के जो छोटे छोटे गढ़ कोट थे उनको हथियाने तथा लूटने हेतु उन्होंने कूटनीति का प्रयोग किया। गोंडी गोंदोला के गण्डजीव अपनी अस्मिता की सुरक्षा एवं रक्षा करने हेतु कुछ प्रतिकार करते हुए मर मिट गए, कुछ उनके गुलाम हो गए तो कुछ अपने प्राण बचाने हेतु उम्मोगुट्टा कोर संभाग से दक्षिण की ओर प्रस्थान कर गए।

गण्डो दीप के गोंडी गोंदोला के गण्डजीवों की धरती पर कब्जा पाने हेतु आर्यों ने उनके शक्तिपूंज संभूशेक और समकालीन कोया लिंगो पर आघात किया। संभूशेक को पार्वती की मोहजाल में फसाकर नशीली पदार्थों का आदी बनाया गया। उसके विषय में मिथ्या ग्रंथों की रचना कर उसका संबंध मूल पेन्कमेड़ी से काटकर हिमालय के कैलास पर्वत से जोड़ दिया गया। संभू गवरा के नाम से स्थापित प्रतिकों को शिव लिंग कहा गया और उसकी उपासना को शिश्नयोनी की घृणीत उपासना करार दिया गया। उनकी परसापेन सल्ला गांगरा शक्ति की उपासना को भी उसी रूप में घृणीत कहा गया।

आर्यों का आक्रमण इस धरती पर कई अर्से तक होते रहा। एक समय ऐसा आया कि आर्योंने उनके गण्डराज्यों पर अपनी अधिसत्ता प्रस्थापित की। इसके अतिरिक्त उनके गण्डराज्यों पर शक, युनानी, मुगल, इसाई आदि अनेक धर्मियों का आक्रमण हुआ। इसके बावजूद आज भी कोया वंशीय गोंडी गोंदोला के सग़ावेन गण्डजीवों ने अपने स्वीय धार्मिक मान्यताओं को बरकरार बनाए रखा है। आर्यों ने अपने कूटनीतिक चाल से उनको आपस में लढ़ाने का कार्य किया। उनके गण्डराज्यों एवं कोटों को तोड़ फोड़ कर जला डाला गया। इस बात की पुष्टि उनके ऋगवेद, रामायण, महाभारत, आदि ग्रंथों में वर्णित एवं उल्लेखित घटनाओं से होती है। ऐसे विपरित परिस्थितियों में भी कोया वंशीय गोंडी गोंदोला के सगावेन गण्डजीवों में उनके गोंडी पुनेगी मूल्य इसतरह समाहित है कि उनके धार्मिक मान्यताओं को नष्ट करने में आज तक आर्यों को सफलता नहीं मिल पाई है। पारी कुपार लिंगो द्वारा प्रस्थापित गोंडी पुनेमी मूल्यों से गॉड समुदाय के गण्डजीवों को परावृत्त करने हेतु हर संभव प्रयास विगत पांच हजार वर्षों से निरंतर जारी है। जैसे सिंगार दीप के प्रथम संधू कोसोडुम के द्वारा प्रतिपादित सर्व कल्याणवादी “मुन्दमुन्शूल सर्री" (वैगुण्यमार्ग) को “तीन विगाड़ा काम बिगाड़ा", तीन तिप्पट महा बिक्कट" ऐसा संबोधित किया गया। कोया वंशीय गण्डजीवों के गोंडी पुनेंग के “चोखो सगुन” (सुभांक) “सात सौ पचास" की संख्या को "साढ़े साती" एवं दैभूतों की व्यवस्था करार दिया गया।

कोयावंशीय गोंडी गोंदोला के सगावेन गण्डजीव स्वयं को दाऊ दाई के नव-दानव, दाऊ दाई के सूर-दस्यूर, दाऊ दाई के इत-दईत दाऊ दाई के भूत-देभूत, दाऊ दाई के बीर-दैवीर तथा दाऊ दाई के आस दास, कहते हैं, जिनका अर्थ क्रम से सपूत, रक्षक, वंशज, पूत्र, उपासक और सेवक ऐसा होता है, को बेअर्थ रूप में प्रचारित किया गया। जैसे दानव याने विक्राल रुप घारी, दस्यूर याने लुटेरे दईत याने राक्षस, भूत याने प्रेतात्मा, द्रबिर याने पराया और दास याने गुलाम इसतरह का मिथ्या प्रचार अपने ग्रंथों के माध्यम से आर्यों ने किया। संगू शेक मादाव याने महादेव भूतप्रेतों का राजा दईतों का राजा, दस्यूरों का स्वामी, दानवों नाथ, ऐसा प्रचार किया गया और आज भी किया जा रहा है। आर्य अनार्यों में भेद करने हेतु दो गण निर्माण किए गए एक देवगण और दूसरा राक्षसगण या दानवगण आर्यों ने स्वयं को देवगण कहा तो कोया वंशियों को राक्षसगण कहा। इन दोंनो श्रेणीयों में अनादि काल से संघर्ष होते आ रहा है। इस संघर्ष को आर्योंने देव और दानवों का संघर्ष, आर्य और अनार्यों का संघर्ष, सूरों और असूरों का संघर्ष, स्वर्ग और धरती का संघर्ष संबोधित किया है। प्राकृतिक मूल्यों के अनुरूप जीनेवाले कोया वंशीय गण्डजीवों की अप्राकृतीक मूल्यों के अनुरूप जीनेवाले आर्यों से निरंतर होनेवाले संघर्ष की वजह से शान्तिप्रिय गोंडी पुनेमियों का राजकीय, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था चरमरा गई। उनके प्राचीन गढ़, कोट, कस्बे आदि ध्वस्त होते गए, और जो शेष है उनका भी नामांतरण कर मूल नामोनिशान मिटाने की प्रक्रिया जारी है।
उक्त हजारों वर्षों से जारी संघर्ष के कारण कुछ गोंडी पुनेमी गण्डजीव आर्यों के गुलाम हो गए और मजबुरन आर्य धर्मियों के जीवन प्रणाली को स्वीकार कर लिया और आज भी स्वीकारते जा रहे हैं, किन्तु उनके जीवन प्रणाली में उन्हें आज भी सम्मानजनक स्थान प्राप्त नहीं हुआ है। इसी प्रक्रिया में कोया वंशीय गोंडी पुनेमी गण्डजीवों पर बुध्द धर्मियों और जैन धर्मियों का भी वर्चस्व रहा। एक जमाने में वर्तमान भारत का संपूर्ण उत्तर पूर्व और दक्षिण भाग बौध्द धर्मि महाप्रतापि राजा सम्राट अशोक के अधीन रहा। किन्तु आश्चर्य की बात यह है कि मध्य भारत के कोया वंशीय गोंडी गोंदोला के सगावेन गण्डजीवों के गोंडी पुनेमी मूल्यों पर कुछ भी प्रभाव नहीं हुआ। वे अपने स्वीय मूल्यों के अनुसार अपना जीवन बिताते रहे। गोंडी पुनेमी मूल्यों और बुध्द के विचारों में काफी मात्रा में समानता झलकती है। पारी कुपार लिंगोने प्राकृतिक शक्ति परसापेन (बुढाल पेन, फड़ापेन, सजोरपेन, सिंगाबोंगा पेन, भिलोटापेन) रुपि सल्ला गांगरा (ऋण-धन) शक्ति को माना है, तो बुध्द ने भी प्राकृतिक शक्ति को ही सर्वोच्च शक्ति मान्य किया है। भौतिक जगत की निर्मिति स्वयंसिध्द है, किसि ईश्वरपर उसका अस्तित्व निर्भर नहीं है ऐसा पारी कुपार लिंगो का मत है, तो ठीक ऐसा ही बुध्द का भी दर्शन है। पारी कुपार लिंगोने गोंगोओं (देवी देवताओं) की शक्ति को पूर्वजों के रुप में मान्य किया है, तो बुध्दने भी ठीक इसीतरह देवताओं के अस्तित्व को मान्य किया है। परंतु उन्हें कोई कर्ता शक्ति या ईश्वर के रूप में नहीं माना है। इस मान्यता में मात्र फरक यह है कि पारी कुपार लिंगोने मृतक पूर्वजों को देवता (पेन) माना है, तो बुध्दने देवताओं का अस्तित्व मनुष्य लोक से भिन्न माना है। पारी कुपार लिंगोने जीव जगत की सर्वोच्च शक्ति परसापेन रुप में सल्ला गांगरा (पिता-माता) शक्ति को माना है और अपने माता पिता की सेवा करने की बात कही है, तो बुध्द का जीव जगत का दर्शन भी कुछ इसी प्रकार का है। पारी कुपार लिंगोने सगावेन गण्डजीवों की गोंदोला (सामुदायिक) व्यवस्था प्रस्थापित की है, तो बुध्द ने संघ की व्यवस्था प्रस्थापित की है। पारी कुपार लिंगोने पेनकड़ा की स्थापना की है, तो बुध्दने भिक्कू केंद्रों की स्थापना की है। पारी कुपार लिंगोने सभी जीवों का कल्याण साध्य करने हेतु मुन्दमुन्शूल सरी (वैगुण्य शूल मार्ग) प्रस्थापित की है, तो बुध्द ने अष्टांग मार्ग प्रदिपादित किया है। पारी कुपार लिंगोने सगा, गोटूल, गुठवा, पुनेम और पेनकड़ा यह पांच वंदनीय एवं पूजनीय तत्वों को मानने की बात कही है, तो बुध्द ने धम्म, बुध्द और संघ को शरण जाने की बात प्रतिपादित की है। पारी कुपार लिंगोने गण्डजीवों के दुः ख का कारण तमपेनी को माना है, तो बुध्दने आशक्ति को माना है। पारी कुपार लिंगो के गोंडी पुनेम का अंतिम लक्ष सगा जन कल्याण साध्य करना है, तो बुध्द का अंतिम लक्ष निर्वाण प्राप्त करना है। पारी कुपार लिंगो का त्रिशुल मार्ग है, तो बुध्द का त्रिशरण मार्ग है। पारी कुपार लिंगोने अपने सगा शिष्यों को पांच कर्तव्य संदेश दिए हैं, तो बुध्दने पंचशील मार्ग प्रतिपादित किया है। पारी कुपार लिंगोने प्राकृतिक न्याय तत्त्वपर आधारित मुंजोक्क सिध्दांत बताया है, तो बुध्दने अहिन्सा सिध्दांत प्रतिपादित किया है। पारी कुपार लिंगोने जन्म मृत्यू का कारण प्रकृति की सर्वोच्च शक्ति परसापेन के पूना ऊना सत्त्वों की पारस्पारिक क्रिया प्रक्रिया और पांच महत शक्तियों के संयुक्तिकरण एवं विघटन को माना है, तो बुध्द ने कार्यकारण सिध्दांत को माना है। पारी कुपार लिंगोने तमवेरची आम्ट—रेक्वेरची कीम्ट!, सुयमोदी आमट- सुयमोद सिम्ट, सेवकाया आम्ट-सेवा किम्ट, सुयवन्के आम्ट-सुयवाणी बन्काट, ऐसा उपदेश दिया है, तो बुध्दने अत् दीप भव, ऐसा उपदेश दिया है। इसतरह बहुत सारी मूल बातों में गोंडी पुनेम और बौध्द धर्म के जीवन मार्ग में साम्यता होने की वजह से कोया वंशीय गोंड समुदाय के जीवन प्रणाली पर बुध्द के विचारों का कोई प्रभाव परिलक्षित नहीं हुआ।

उसके पश्चात भारत वर्ष में मोगलों का आक्रमण होकर उन्होंने अपनी साम्राज्य व्यवस्था प्रस्थापित की अनेक गोंडी पुनेमियों को अपने शक्ति के बलपर जोरजुलुम से मुश्लीम धर्म स्वीकरने हेतु बाध्य किया। इसके बावजूद भी जिन लोगोंने पहले मुगल धर्म अपनाया था, वे सभी मुश्लिमों की राज्यसत्ता समाप्त हो जाने पर अपने गोंडी पुनेम में पुनर्प्रवेशीत हो गए। मुगलों के पश्चात इसाईयों की अधिसत्ता के कारण भी गोंडी पुनेमी समुदाय में अधिक मात्रा में धार्मिक परिवर्तन की प्रक्रिया जोरों से चली। अनेकों ने इसाई धर्म को स्वीकार कर अपने मूल धार्मिक मूल्यों को त्याग दिया है। इसतरह गण्डोदीप के कोया वंशीय गोंडी गोंदोला के गण्डजीवों की पुनेमी व्यवस्था, राज्य व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था और सांस्कृतिक व्यवस्था जो मूल रूप से नार, गुडा, कोट, गढ़ और पेनगढ व्यवस्था के रूप में अनादि काल से इस सिंगार दीप में विद्यमान थी, उस पर नगर, दुर्ग, जनपद और मंदीर व्यवस्था धारक आर्यों के पश्चात किल्ला, मश्जिद एवं खुदा व्यवस्था धारी मुश्लीमों और सीटी, फोर्ट, चर्च एवं गॉड व्यवस्था धारी इसाईयों का आक्रमण हुआ। उक्त सभी मनु के मानवों, आदम के आदमियों इल्लाह के इन्सानों और मेरी के मैनों ने गोंडी गोंदोला के गण्डजीवों की गोंडी पुनेमी व्यवस्था ध्वस्त करने का प्रयास किया है और आज भी करते ही जा रहे हैं।

पहादी पारी कुपार लिंगो के गोंडी पुनेम दर्शन पर किसी भी प्रकार के ग्रंथ लिखे नहीं होने के कारण आज इस पुनेम के मूल्य नष्ट होने की कगार पर हैं। कोया वंशीय गोंडी गोंदोला के गण्डजीवों की आज ऐसी हालत हो गई है कि "हम कौन है? हमारी व्यवस्था क्या है? हमारी आचार संहिता क्या है? हमारा पुनेम कौनसा है ? इस बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है। अपने बाल बच्चों के नाम पाठशाला एवं शिक्षा केंद्रों में दर्ज कराते समय जब उनसे शिक्षा केंद्र संचालकों की ओर से उनके धर्म के बारे में पूछताछ की जाती है, तब वे अपने धर्म को बता नहीं पाते। अंत में शिक्षा केंद्र के संचालक उनका धर्म हिन्दु लिख देते हैं। इस तरह अनजाने में ही मूल गोंडी पुनेमी व्यवस्था के लोगों के बाल बच्चों का प्रवेश हिन्दु या अन्य धर्मों में होते जा रहा है। सही देखा जाय तो हर धर्म में प्रवेश पाने की कुछ विशेष विधियां होती हैं, कुछ विशेष धार्मिक संस्कार होते हैं। जैसे हिन्दु धर्म में प्रवेश दिलाने के लिए यज्ञोपवित मूंज संस्कार होता है, मुश्लिम धर्म में प्रवेश दिलाने के लिए खतना संस्कार अदा किया जाता है। तो इसाई धर्म में बाप्तिस्मा किया जाता है। इस प्रकार के कोई भी संस्कार आजतक कोया वंशियों के नहीं होने पर भी वे सरेआम दूसरों की ओर से हिन्दु कहलाए जाते हैं। जब कि हिन्दु और गोंडी पुनेम के मूल्यों में जमीन आश्मान का फरक है। गोंडी धर्मी परसापेन को मानते है, तो हिन्दु ईश्वर को मानते है। गोंडी धर्मियों का धार्मिक स्थल पेड़ पौदे होते हैं, तो हिन्दुओं के धार्मिक स्थल मंदीर होते है। गोंडी धर्मियों को काला रंग वर्ज्य है, तो हिन्दुओं को स्वीकार्य है। गोंडी धर्मियों की आस्था मातृशक्ति में होती है, तो हिन्दुओं की आस्था पितृशक्ति है। गोंडी धर्मी पूजापाठ करते हैं, तो हिन्दु होम हवन करते हैं। गोंडी धर्मियों के लिए साड़ेसाती का अंक शुभ है, तो हिन्दुओं के लिए अशुभ है। गोंडी धर्म लोग उत्तर दिशा को अशुभ मानते हैं, तो हिन्दु दक्षिण दिशा को अशुभ मानते हैं। गोंड आड़ा तिलक लगाते हैं, तो हिन्दु खड़ा तिलक लगाते हैं। गोंडीयनों की सगावेन युक्त गोंदोला व्यवस्था है, तो हिन्दुओं में जाति व्यवस्था है। गोंडीपुनेम का अंतिम लक्ष सगा सेवा है, तो हिन्दुओं का मोक्ष प्राप्त करना है। गोंडी पुनेमी लोग अपने मृत जीवों को मिट्टी देते हैं तो हिन्द दाह संस्कार करते हैं। गोंडी पुनेमी लोग अपने मृतक जीवों का पेनकारण करते हैं, तो हिन्द श्राध्द करते हैं। गोंड समुदाय में कुलवध की प्रथा है, तो हिन्दुओं में पुत्रवध की प्रथा है। गोंडी पुनेम के अनुसार यह जीवजगत सत्य है, तो हिन्दुओं के लिए यह मिथ्या है। इसतरह गोंडी पुनेम और हिन्दु धर्म में मूलभूत अंतर है इसके बावजूद भी उनके बाल बच्चों को जानबूजकर हिन्दु बनाने की प्रक्रिया स्कुलो में सरेआम जारी है।

यह सब कुछ होकर भी काया वंशीय गोंडी गोंदोला के गण्डजीवों की सामाजिक व्यवस्था मूल रूप में कायम है। क्योंकि यह व्यवस्था इतने उच्चकोटि के मूल्यों से परिपूर्ण है कि ऐसो सामाजिक व्यवस्था विश्व के किसी भी समाज और उसके जीवन माग रुपि धर्म में नहीं पायी जाती। उसीतरह वे अपने फड़ापेन (परसापेन, सजोरपेन, बुढालपेन) शक्ति को भी मानते ही जा रहे हैं। इन सभी बातों पर विचार करने पर जिस पहादी पारी कुपार लिंगोने गोंडी पुनेम की प्रतिस्थापना की वह कितना महान भौतिक जगत का ज्ञाता रहा होगा, यह बात पाठकों के ध्यान में आए बिना नहीं रहेगी।

इस तरह उस अद्वितीय महामानव का महत्त्व है, जिसने कोया वंशीय गोंडी गोंदोला सगावेन गण्डजीवों के समदाय में जन्म लिया और उसके बोधामृत से गोंडवाना के गोंडी वेनोंने परे रहना यह आश्चर्य की ही नहीं बल्कि दुर्भाग्य की भी बात है। यही विचार मनमें संजोकर हमने उस महा मानव का चरीत्र और उसका गोंडी पुनेमी मुल्यों का दर्शन गॉड समदाय में प्रचलित पुनेमी किवदान्तियों, जनश्रुतियों, लोक गाथाओं, लोकगीतों, और धार्मिक विधियों का अध्ययन कर लिखने का प्रयास किया है। इसका अध्ययन कोया वंशीय गोंडी गोंदोला के गण्डजीव अवश्य करेंगे और अपनी अस्मिता एवं स्वाभिमान जागृत कर अपने सगाजनों का कल्याण साध्य कर गौरवशाली इतिहास बनाएंगे ऐसा आत्मविश्वास है।

                                       आचार्य मोतीरावण कंगाली




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 1. उत्पत्ति और वितरणः गोंड लोग भारत के सबसे बड़े स्वदेशी समुदायों में से एक हैं। माना जाता है कि उनका एक लंबा इतिहास है और माना जाता है कि वे गोंडवाना क्षेत्र से उत्पन्न हुए हैं, इस तरह उन्हें अपना नाम मिला। वे मुख्य रूप से भारत के मध्य और पश्चिमी हिस्सों में रहते हैं, विशेष रूप से मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, तेलंगाना, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में। 2. भाषाः गोंड लोग मुख्य रूप से गोंडी भाषा बोलते हैं, जो द्रविड़ भाषा परिवार से संबंधित है। हालाँकि, पड़ोसी समुदायों के साथ विभिन्न प्रभावों और बातचीत के कारण, कई गोंड लोग हिंदी, मराठी, तेलुगु आदि क्षेत्रीय भाषाओं में भी धाराप्रवाह हैं। 3. संस्कृति और परंपराएँः कला और शिल्पः गोंड कला गोंड संस्कृति की एक विशिष्ट विशेषता है। इसकी विशेषता जटिल प्रतिरूप, जीवंत रंग और प्रकृति, जानवरों और दैनिक जीवन के चित्रण हैं। इस कला को भारत के भीतर और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली है। संगीत और नृत्यः गोंड लोगों में संगीत और नृत्य की समृद्ध परंपरा है। उनके गीत और नृत्य अक्सर प्रकृति, कृषि और अनुष्ठानों के साथ उनके संबं...

कोणार्क मंदिर को गोंड शासकों ने बनवाया

कोणार्क मंदिर को गोंड शासकों ने बनवाया अजय नेताम कोणार्क मंदिर उड़ीसा के प्रवेश द्वार पर हाथी पर सिंह सवार (गजाशोहुम) गोंडवाना का राज चिन्ह है, इस मंदिर को आंध्रप्रदेश विजयनगरम के चार देव गंग वंशी नेताम गोंड राजा नरसिंह देव ने बनवाया है। रावेण (निलकंठ) गणडचिन्ह धारक यदुराय का शासन काल जनरल कनिधाम के अनुसार 382 ई., वार्ड के अनुसार 158 ई. स्लीमेन के अनुसार 358 ई. और रूपनाथ ओझा के अनुसार 158 ई. है। एकलौते इतिहासकार जिन्होंने सिंधु यदुराय बाहर पहरा दे रहे थे, उसी लिपी (सिंधु सभ्यता) को गोंडी में पढ़ समय उनके सामने से हाथियों का झुंड के बताया और बाद में उसपर एक भागते हुए निकला, झुंड के सबसे किताब सिंधु लिपी का गोंडी में आखिरी हाथी में एक सिंह सवार था उद्घाचन भी निकाला) के अनुसार जो उसका शिकार कर रहा था। गोंडी इतिहासकार डॉ मोतीरावण कंगाली (दुनिया के पहले और शायद यदुराय पहले राजा रतनसेन कछुआ यदुराय जीववादी, प्रकृतिवादी और गणड़चिनह धारक के यहां नौकरी बहुत ही बुद्धिमान सैनिक था जब यदुराय करता था, एक बार राजा रतनसेन ने ई. सं. 358 में राज्य सत्ता संभाली शिकार करने जंगल गये तो रात होने त...

"#पिट्टे" मतलब #गोंडी लैग्वेज में *चिड़िया " ... गोंडी लैग्वेज में गीत के लिए शब्द है "#पाटा" और " कहानी" के लिए शब्द है "#पिट्टो" .... अर्थात जो प्रकृति की कहानी बताती है वह जीव "पिट्टे" कहलाता है

GBBC:- The Great Backyard Bird Count-2022   (18 से 21 फरवरी 2022 तक)  "#पिट्टे" मतलब #गोंडी लैग्वेज में *चिड़िया " ... गोंडी लैग्वेज में गीत के लिए शब्द है "#पाटा" और " कहानी"  के लिए शब्द है "#पिट्टो" .... अर्थात जो प्रकृति की कहानी बताती है वह जीव "पिट्टे" कहलाता है....        है न रोचक... ऐसी ही है  पृथ्वी की इस पहली भाषा का रहस्य... ज्ञान से भरपूर है  प्रकृति के पुजारियों हम इण्डीजीनसो की  भाषा.... #पिट्टे याने चिड़िया याने "Birds "  की दुनिया में लगभग 10,000 प्रकार की प्रजाति का होना वैज्ञानिकों के द्वारा बताया गया है इनमें से भारत में लगभग 1300  प्रकार के पाऐ जाते हैं..वंही छत्तीसगढ़ राज्य में भी 400 से अधिक प्रजातियों के पक्षी पाये गये हैं ! . चूकिं  पक्षियो की कुछ प्रजातियों को हम #कोयतोरो(Indigenous) ने टोटम भी बनाया है... पेन पुरखों की तरह पुजनीय भी बनाया है... महान वैज्ञानिक #पहांदी_पारी_कुपार_लिंगों व महान मौसम गणनाकार...