अध्याय 1
प्रस्तावन
कोया वंशीय गोंड सगा समुदाय में गोंडी पुनेम से संबंधित जो कथासार एवम् मिथक मुंह जबानी प्रचलित है उस आधार पर गोंडी पुनेम की स्थापना कब और कौन से युग में की गई है इसका हम मोटे तौर पर आवश्यक अनुमान लगा सकते हैं गोंडी पुनेम कथा सारों के अनुसार कि इस पूनेम की संस्थापक कोयापारी पहांदीकुपार लिंगो मुठवापोय द्वारा संभू सेख कार्यकाल में की गई है शंभू सेठ याने शंभू महादेव जिसका योग इस देश में आर्यों के आगमन होने से पूर्व का माना जाता है
गोंडी भाषा में शंभू सेख का अर्थ 5 खंड धरती का स्वामी ऐसा होता है उसी तरह गोंडी पुणेमी मान्यता के अनुसार सतपुड़ा के पेंकमेड़ी /(पंचमढ़ी) कोट से इस पांच खंड धरती पर एक के पश्चात दूसरा ऐसे कुल 88 संभू सेखो ने अपने अधिसक्ता चलाई है शंभू से एक-एक उपाधि है जिससे 5 खंड धरती के राजा या स्वामी को संबोधित किया जाता है उस उक्त सभी संभू सेको की उपासना कोया वंशीय गोंड समुदाय के लोग शंभू माताओं के रूप में आज भी करते हैं शंभू मा दाव इस गोडी शब्द का अर्थ शंभू हमारा पिता ऐसा होता है जिस से शंभू महादेव ऐसा शब्द बना है सभी संभव अपने अर्धांगिनीयों की जोड़ी से ही जाने जाते हैं जैसे शंभू मूला, संभू गोंदा शंभू मूरा शंभू सैया शंभू रमला शंभू बीरो शंभू रैय्या शंभू अनेदी शंभू ठम्मा शंभू हीरो शंभू गौवरा शंभू बेला शंभू तुरसा, शंभू आली शंभू सती शंभू गिरजा शंभू पार्वती आदि शंभू मूला यह प्रथम शंभू से जुड़ी थी जिसका नाम कोशोडूम था यह पेंन्कमेढी कोट के कोट प्रमुख कुली तारा का पुत्र था जिसने सभी जिवो का कल्याण साध्य करने हेतु मूंद सूल र्सरी तैर्गुन मार्ग प्रतिपादित किया। संभू पार्वती यह अंतिम संभू की जोड़ी थी, जिसका नाम संगूर था और जिसके कार्यकाल में कोया वशीय गोंडीवेन समा गोंदोला (सगा समुदाय के गण्डजीवों के गण्डराज्यों पर विदेशी घुमन्तु आर्य जातियोंने आक्रमण किया था। संभू गवरा की मध्य की जोड़ी है, जिसके कार्यकाल में पूर्वाकोट गण्डराज्य के गण्डप्रमुख पुलशिवहिरवा के परिवार में एक रूपोलंग नामक महान गण्डजीव ने जन्म लिया और आगे चलकर जिसने कोया वंशीय कोया मन्वाल गण्डजीवों का सर्व कल्याण साध्य करने हेतु "गोंडी पुनेम" की संस्थापना की और अपने महत्त्वपूर्ण विशेष कृतियों से "कोयापारी पहांदी कुमार, लिंगो मुठवापोय" नाम से विख्यात हुआ। (१)
माता कली कंकाली के मंडुन्द कोट (तैंतीस कोट) बच्चों, जिन्हें संभू व कोयली कबाड़ लोहमद कोया ( गुफा) में बंद कर दिया था, को रायतार जंगो और हीरासुका पाटालौर की साहयता से मुक्त कर कोयापारी पहादी कुपार लिंगो ने उन सभी को अपने शिष्य बनाया और "गोंडी पुनेम" की शिक्षा एवं दिशा प्रदान कर उन्हीं के माध्यम से गोंडी पुनेम मूल्यों का प्रचार एवं प्रसार किया। इसतरह उन कोया मन्वाल गुफा निवासी) कुपार लिंगों के शिष्यों के नाम से गोंडी पुनेम को "कोया पुनेम" भी कहा जाता है। कोया वंशीय याने आदि शक्ति दाई की कोया (कोक) से जन्म लेनेवाले और कोया मन्वाल याने गुफा या कंदरा में निवास करनेवाले, पहादी पारी कुपार लिंगो के उन्हीं शिष्यों की उपासना सगा मूठ देवताओं के रुप में आज भी कोया वंशीय गोड समुदाय के लोग करते हैं। कोया पुनेम का अर्थ कोया वंशियों का सत्मार्ग ऐसा होता है। पुनेम यह संयुक्त गोंडी शब्द है. जो पुय और नेम इन दो शब्दों की मेल से बना है। पुय याने सत्य और नेग याने मार्ग, जिस पर से कोया पुनेम याने कोया वंशियों का सत्मार्ग ।
हड़प्पा मोहन जोदड़ो के उत्खनन से प्राप्त मुद्रा क्र. ३०४ में भैसा संग युक्त सींगमोहूर घारी योगिक मुद्रा में विराजमान देवता की चित्रकृति अंकित है, जिसके अगल बगल में पालतु एवं जंगली जानवरों के चित्रकृतियां भी उकेरी गई हैं। उक्त मुद्रा के देवता की चित्रकृती के शीर्ष भाग में सिंधु लिपि में ऐसा पाठ अंकित है, जिसे द्रवीड पूर्व गोंडी भाषा में दाएं से बाएं "आल कोया पारी पहादी गुठवापोय आन्द" ऐसा पढा गया है, जिसका अर्थ यह कोया वंशीय सगापारी पहांदी (बड़ा) गुरु मुखिया है" ऐसा होता है। सिंधु घाटी में किए गए उत्खनन से प्राप्त उक्त मुद्रा में अंकित पाठ इस तथ्य का प्रमाण है कि कोया पुनेम की संस्थापना कोया पुनेम मुठवा (गोंडी पुनेम गुरु) पहादी पारी कुपार लिंगो के द्वारा कई हजारों वर्ष पूर्व काल में की गई है। (२)
कोया वंशीय गोंड समुदाय में कोया, कोयतूर, कोयाल, कोयजा, ओझा, कोतकारी, ओतकारी, कोडरा, कंडरी, कोईकोपा, कोयगा, बयगा, पारा, पाटारी, घोटी, कोलाम, कोड, कांद, कोमुडा, कोटरा, काला, खोड, मैना, भारीया, बत्रा, बिंझवार, कुरुक, परजा, नगारवी, कोईखाती, अरख, गदबा, मारीया, भईला, मिन्ड, मिज, कोला आदि अनेक जनजातियों का समावेश होता है। इन सभी जनजातियों में एक समान संगायुक्त सामाजिक व्यवस्था, एक समान गोत्र व्यवस्था, एक समान देवि देवताओं की उपासना तथा एक समान भाषा प्रचलित है। इन सभी जनजातियों के लोगों को गोंडी भाषा में “आप कौन है?" ऐसा सवाल पूछे जाने पर "हम कोयतोर या कोईतूर है", ऐसा जवाब देते हैं। जिसका अर्थ हम कोया वंशीय है, कोया पुनेमी हैं, ऐसा होता है। उसीतरह गोंडी भाषा में "मीवा इद बती रगड़ा आंदू? (आपकी यह कौनसी व्यवस्था है?) ऐसा सवाल पूछने पर "मावा इद गोंडी रगड़ा आंदू (हमारी यह गोंडी व्यवस्था है), ऐसा जवाब देते हैं। इस तरह आज भले ही वे भिन्न नामों से जाने जाते हैं, फिर भी मूल रूप से वे कोया वंशीय और गोंडी व्यवस्था से जुड़े हैं।
गोंडी भाषा में इस धरती को सिंगार दीप या गण्डोदीप कहा जाता है। सिंगार दीप और गण्डोदीप इन दोनों शब्दों का अर्थ पंच खण्ड धरती ऐसा होता है। सिंगार दीप यह संयुक्त गोंडी शब्द है जो सईंग आर दीप इन तीन शब्दों की मेल से बना है। गोंडी में सईंग याने पांच आर याने पानी और दीप याने धरती, इसतरह सईंगारदीप याने पानी के अंदर के पांच द्वीप ऐसा अर्थ होता है। उसी तरह गण्डोदीप यह भी संयुक्त गोंडी शब्द है, जो गण्डो दीप इन दो शब्दों से बना है। गोंडी भाषा में पांच वस्तुओं के एक संच को गण्डा कहा जाता है, जिस पर से पांच द्वीपों के संच को गण्डो दीप कहा जाता है। गोंडी बुडूम सूर (गोंडी मूल सुत्र) से गण्डोदीप के गण्डजीवों की गण्डजीवों के गोंदोला व्यवस्था की, गोंदोला व्यवस्था के गोंडीवेन सगाओं की, गोंडीवेनों की गोडवानी एवं गोंडवाना की. गोंडवाना के गण्डराज्यों की तथा उनके मूल कोया वंश की जानकारी मिलती है।
गोंडी बुडूम सूर के अनुसार पंच खण्डों के संयुक्तिकरण से एक गण्डा बनकर इस गण्डोदीप की रचना हुई है। गण्डोदाई के गण्डजीवों (संतानों) की •पहचान एक गोंदोला (समुदाय) में होती है, गोंदोला निवासी गोडीवेनों की भूमि गोंडवाना नाम से जानी जाती है और उनकी बोली भाषा को गोंडवानी कहा जाता है। उसी तरह गण्डोदीप के गण्डजीवों की उत्पत्ति गण्डोदाई (परती दाई या आदि शक्ति दाई कली कंकाली) की कोया (कोख) से हुई है, इसलिए कोया वंश बना है। जिस तरह मनु के मानवों की व्यवस्था आर्य या हिन्दु, मेरी के मैनों की व्यवस्था ईसाई और आदम के आदमियों की व्यवस्था इश्लाम है, ठीक उसीतरह कोया से जन्म लेनेवाले कोयावशियों की व्यवस्था गोंडी है। गोडी व्यवस्था एक जीवन प्रणाली है. एक सभ्यता है, जो विशेष सामुदायिक मूल्यों से परिपूर्ण है, जिसे गोंडी पुनेम कहा जाता है। कोया वंशियों की विशेष गोंदोला व्यवस्था (सामुदायिक व्यवस्था) प्रस्थापित होने के पूर्व उनके भूभाग को कोयामूरी द्वीप कहा जाता था। कोयामूरी दीप इस गोडी शब्द का अर्थ कोया वंशीय पुत्रों का भूभाग ऐसा होता है। (३)
प्राचीन काल में आज से कई हजार वर्ष पूर्व संधू- गवरा के कार्यकाल में पुर्वाकोट गणराज्य के गणप्रमुख पुलशीव के परिवार में रूपोलग पहादी पारी कुपार लिंगो नामक कोया पुंगार ने जन्म लिया और कोयामूरी दीप के कोया वंशियों का प्रनेता बना और जिसने उनके सर्वकल्याण साध्य करने हेतु गोंडी पुनेम की संस्थापना की। उसका सम्पूर्ण जीवन चरीत्र तथा उसके द्वारा प्रस्थापित गोंडी पुनेम के मूल्यों की जानकारी आज भी गोंड समुदाय में उनके धार्मिक कथासारों एवं लोकनृत्य गीतों के माध्यम से विद्यमान है। उस अद्वितीय महापुरुष की चरीत्र गाथा, उसके द्वारा प्रस्थापित किए गए गोंडी पुनेमी नीति सिध्दांत और सगावेन घटक युक्त सामुदायिक संरचना की दार्शनिक जानकारी अलिखित होने की वजह से कोया वंशीय गोड समुदाय के प्रबुध्द लोग अन्य धर्मियों के प्रभाव में आकर अपने मूल धर्म के प्रति अपनी असीम उदासीनता दर्शाते हैं, यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है। गोड समुदाय का सामाजिक तथा धार्मिक दर्शन इतने उच्च कोटि के मूल्यों से परिपूर्ण है कि उस समुदाय के गणराज्यों पर आर्यों से लेकर आजतक कितने तो भी विदेशियों का आक्रमण हुआ, उनकी राज्यसत्ता छीन ली गई तथा सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक व्यवस्था तहस नहस की गई, फिर भी गोंड समुदाय के धार्मिक मूल्यों पर उसका कुछ भी प्रभाव नहीं हो पाया। प्राचीन काल में भी वह समाज फडापेन, परसापेन, सजोरपेन तथा बुढालपेन का उपासक था, आज भी है औरऔर भविष्य में भी रहेगा। प्राचीन काल में भी संभू मूला के द्वारा प्रतिपादित मूंदशूल (त्रिशूल) मार्गयुक्त जयसेवा मंत्र का परिपालन कर्ता था, आज भी है और भविष्य में भी बना रहेगा। इन सभी विशेषताओं की ओर ध्यान देने पर कोया वंशीय गोंड समुदाय के सगाजनों का गोंडी पुनेम गुरू पहांदी पारी कुपार लिंगो के प्रति स्वाभिमान जाग्रत होना स्वाभाविक बात है। क्योंकि वह उनके सगावेन गोंडी गोंदोला का गण्डजीव था जिसने उन्हें चीरस्थाई गोंडी पुनेम का यथार्थवादी मार्ग बताया है। उसके द्वारा प्रस्थापित की गई सगावेन घटक युक्त सामाजिक व्यवस्था उनके प्राचीन प्रगत सभ्यता की एक विशालकाय वृक्ष है, जो आज के प्रतिकुल परिस्थितियों में भी फल फूलते ही जा रहा है। इसलिए उसका चरीत्र, उसका गोंडी पुनेम दर्शन तथा सामाजिक नीति सिध्दांतों एवं मूल्यों का अर्थ जानने की जिज्ञासा न केवल कोया वंशीय गोंड समुदाय के गण्डजीवों में बल्कि सभी वर्ग एवं धर्म के लोगों में होनी चाहीए। गोंडियनों का गोंडी पुनेम दर्शन उच्चतम मूल्यों से परिपूर्ण होकर भी आज उसकी जानकारी उस समुदाय के गण्डजीवों को नहीं होना यह बहुत ही दुखपूर्ण एवं आश्चर्यजनक बात है। पारी कुपार लिंगो जैसा महान योगिक तथा बौध्दिक ज्ञानी पुरूष कोया वंशीय गोंड समुदाय का गोंडी पुनेम मुठवा (गोंडी धर्म गुरू) होकर भी उसके विषय में अभिज्ञ रहना या उसे प्राप्त करने की जिज्ञासा मनमें जाग्रत नहीं होना, यह स्वयं को गोंडवाना के गोंडियन कहलानेवाले गण्डजीवों के लिए बहुत ही शर्मनाक बात है। गोंड समुदाय के लोगों में उनकी प्राचीन धार्मिक, ऐतिहासिक सांस्कृतिक तथा सामाजिक मूल्यों के प्रति बेगजब उदासिनता दृष्टिगोचर हो रही है। इसलिये उनकी सही योग्यता से वे अभिज्ञ हो गए हैं। अपने प्राचीनतम धरोहरों के बारे में स्वाभिमान जाग्रत होने पर ही उन्हें अपने वर्तमान हालात पर थोड़ी शर्म आएगी तथा उसे सुधारने की प्रबल इच्छाशक्ति उनमें जाग्र हुए बिना नहीं रहेगी। प्रस्तुत विषय इसी तारतम्य की कृति है।
इस ग्रंथ को लिखते समय कोया वंशीय गोंड समुदाय में अनादि काल से प्रचलित धार्मिक कथासारों, किवदन्तियों, लोकगीतों, नृत्यगीतों और सामुदायिक नीतिमुल्यों के पीछे जो दर्शन अभिप्रेत है, उसका आधार लिया गया है। अन्त में पहांदी पारी कुपार लिंगो के पुनेम विचार, नीति विचार, सगावेन युक्त सामाजिक व्यवस्था का सारदर्शन, मुजोक सिध्दांत, सर्व कल्याणवादी सिध्दांत, गोटुल दर्शन, फड़ापेन शक्तिउपासना का महत्त्व, सर्व साधारण नीतिबोध, सगा सामाजिक संस्कार, सामुदायिक रिवाजी न्याय एवं दण्ड व्यवस्था और गोंडी पम प्रचार का ऐतिहासिक सार दिया गया है।
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