सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

कुपार लिंगो का जन्म

कुपार लिंगो का जन्मम


Handipari kuppar lingo koituro ka pratham guru #(पहांदीपारी कुपार लिंगों)

पारी कुपार लिंगो के जन्म के बारे में कोया वंशीय गोंडी गोंदाला के सगावेन गण्डजीवों में अनेक तरह की किवदन्तियां प्रचलित है। उनमें से चंद्रपुर, अदिलाबाद, वारंगल, इस्टगोदावरी और बस्तर परिक्षेत्र में जो कथासार प्रचलित है उसके अनुसार गोंडी पुनेम मुठवा पहांदी पारी कुपार लिंगो का जन्म "कोया पुंगार" से हुआ है, ऐसी जानकारी मिलती है। ठीक ऐसा ही कथासार डॉ. हेमन्डॉर्क के “दी राजगोंडस् ऑफ अदिलाबाद" इस किताब में भी वर्णित है । मुह जबानी कथासारों के अनुसार, एक बार हीर्बा दाई को पेण्डूर गंगा में जलविहार करने की इच्छा हुई। पेण्डूर मेट्टा सें पेण्डूर गंगा का उद्गम होकर वह पुर्वाकोट गण्डराज्य से बहती थी, जिसके बहते पानी में जलविहार करने हीब माता अपने सेविकाओं के साथ गई। नदी किनारे एक पेड़ की छांव तले अपने वस्त्रादि उतारकर वह नदी के प्रवाह में जलविहार करने उतर गई। उसे नदी केेप्रवाह में हो गया। एक सुंदर "कोया पुंगार" बहता हुआ दृष्टिगोचर हुआ। उसे पकड़ने हेतु हीर्बा माता तैरते हुए बीच प्रवाह में गई। जैसे ही उसने अपने दोनों हाथों से उस कोया पुंगार को धर लिया, उसका एक सुंदर बालक के रूप में रुपांतर उस बालक को लेकर हीर्बा माता अपने सेविकाओं के साथ राज महल में लौट आई। पुत्र रत्न प्राप्त होने की वार्ता पुलशीव राजा को कह सुनाया गया। उस नवजात शिशु को देखकर पुलशीव राजा पुलकित हो उठा। उसके नामकरण विधि का कार्यक्रम बड़े ही धूम धाम से आयोजित कर उस बालक का नाम “कुपार" रखा गया उसके मस्तक की चमक ध्यान में रखकर उसे “रुपोलंग" याने चांदी जैसे चमकनेवाला कहा गया। कोया पुंगार इस गोंडी शब्द का अर्थ कोया वंशीय पुत्र भू ऐसा होता है, जिस पर से जो कोया फूल नदी के प्रवाह में बहता हुआ आया कुछ या वह फूल नहीं बल्कि पुत्र था, जिसे हीर्बा दाईने अपने आचल में ले लिया। आगे चल कर वही अपने गुणों से पहांदी पारी कुपार लिंगो के नाम से जाना गया।

उद्या

दिख

बाल

पारी कुपार लिंगो के जन्म के संबंध में जो दूसरी किवदन्ति विशेष रुप से नागपुर, वर्धा, भंडारा, सिवनी, बालाघाट जिलों के परिक्षेत्र में प्रचलित है, उसके रा अनुसार प्राचीन काल में दाई कली कंकाली के मंडून्द कोट बच्चों से परेशान होकर संभू-गवरा ने मिलकर उन्हें कोयली कचाड़ लोहगढ़ पर्वत की गुफा में बारह वर्ष की कैद सुनाकर बंद कर दिया था। उन्हें उचित मार्ग दर्शन करने हेतु एक महान बौध्दिक ज्ञानी पुरुष की आवश्यकता महशूस कर संभू-गवरा ने पारी पटोर बिजली पूरा के निवासी जालका दाऊ और उसकी पत्नी हीरोदाई से उनका पुत्र रुपोलंग को दान में लिया। इस बारे में ऐसा बताया गया कि जालका दाऊ और हीरो दाई दोनों म संभू-गवरा के महान सेवक थे। एक दिन संभू-गवरा जालका दाऊ के द्वार पर गए और उससे मिन्नत किए, “हे जालका दाऊ तुम बहुत गरीब हो, जिसकी वजह से तुम अपने पुत्र का परवरिश उचित ढंग से नहीं कर पाओगे, हम तुम्हारे पुत्र को गुणी और ज्ञानी बनाना चाहते हैं, इसलिए तुम अपने रुपोलंग पुत्र को हमें दान में प्रदान करो। “संभू-गवरा पर उनका पूर्ण विश्वास था, इसलिए उन्होंने अपने पुत्र को संभू की गोद में दे दिया, जिसे संभू शेकने पुलशीव राजा के उद्यान में एक तोया वृक्ष के नीचे ले जाकर रख दिया और अपने गले का हार अर्थात् भूजंग को उसकी रक्षा के लिए नियुक्त कर दिया।
उस समय हीर्बा माता, जो पुत्ररत्न प्राप्ति के लिए व्याकुल थी, अपने उद्यान में टहलने हेतु गई थी। तोया पेड़ के नीचे उसे एक सुंदर बालक रोता हुआ दिखाई दिया। उसके पास एक बहुत बड़ा भूजंग था, जो अपना फन फैलाकर उस बालक के ऊपर छांव कर रहा था। उस चमत्कारिक दृश्य को देखकर हीर्बा माता को बहुत आश्चर्य हुआ। क्योंकि बालक के चारों ओर घेरा डालकर वह भूजंग (नाग) फन फैलाए बैठा हुआ था। डर के मारे हीर्बा माताने कुछ समय के लिए अपनी आंखें बंद कर लिया। ठीक उसी वक्त वह भूजंग वहां से दूसरी ओर चला गया। हीर्बा माताने दूबारा उस बालक की ओर आंखें खोलकर देखा, तब वहां भूजंग को न पाकर चकित हो गई। चारों ओर निगाह दौड़ाने पर भी उसको वहां कुछ भी नजर नहीं आया। वह बालक जोर जोर से रो रहा था। हीर्बा माता को उसकी हालत देखा नहीं गया। उसके मन में मातृप्रेम जाग्रत हो उठा। अंत में उस बालक के पास जाकर उसने अपनी गोद में उसे घर लिया, जिससे बालक ने रोना बंद कर दिया। उस बालक को लेकर हीर्बा माता राजमहल में गई और पुलशिव राजा को घटित घटना कह सुनाई। नवजात शिशु के बारे में चमत्कारिक समाचार सुनकर पुलशीव राजा भी चकित हो गए। उस बालक को फड़ापेन का वरदान समझकर राजाने उसे स्वीकर कर लिया। नामकरण विधि का कार्यक्रम आयोजित कर उसका नाम कुपार रखा गया। भूजंग की कुंडली (कुपार) से प्राप्त होनेवाला बालक समझकर उसे “कुपार" नाम से संबोधित किया गया। गोंडी भाषा में सर्प के कुंडली को कुपार कहा जाता है। बड़ा हो जाने पर उसी बालक ने कली कंकाली के मंडुन्द कोट बच्चों को कोयली कंचाड़ लोहगढ़ पर्वत की गुफा से मुक्त कर उन्हें अपने शिष्य बनाया और गोंडी पुनेम की दीक्षा एवं शिक्षा देकर उन्हें सगावेन शाखाओं में विभाजित किया। आगे चलकर उन्हीं के माध्यम से पारी कुपार लिंगोने संपूर्ण कोया वंशीय गण्डजीवों को गोंडी गोंदोला के सगावेन शाखाओं में संरचित कर गोंडी पुनेम का प्रचार एवं प्रसार किया।

तीसरी कथा बैतुल, छिंदवाड़ा तथा नरसिंहपूर जिलों का जो परिक्षेत्र है, वहां रहनेवाले गोंड समुदाय के लोगों में प्रचलित है। राजा पुलशीव और ही माता के वैवाहिक जीवन के पांच वर्ष गुजर जाने पर भी उन्हें कोई सन्तान नहीं हुआ था। दोनों बहुत दुःखी एवं चिंतित थे। एक दिन रात्रि के समय हीर्बा माता को गहरी नींद में एक सपना दिखाई दिया। सपने में एक नन्हासा बालक आया
8और हीर्वा माता से कहने लगा, "हे माताजी! मैं तुम्हारी कोख में समा जाना चाहता हूं, मुझे जगह दीजिए। "उस नन्हासा बालक को देखकर हीबा माताजी ने उसे अपनी गोद में ले लिया। ठीक उसी समय राज महल के दरबान द्वारा प्रातः काल की शुभ सूचना घंटा बजाकर दी गई। हीर्वा माताजी का सपना भंग हो गया वह उठकर अपने बिस्तर के इर्दगिर्द सपने में आए बालक को तलासने लगी। यह देखकर राजा पुलशीव को कुछ अजीब सा लगा। उसने हीर्वा माताजी से पूछताछ की। राजा द्वारा सवाल करने पर ही माता का होस ठिकाने आया। माताने सपने में आए बालक की कथा राजा को कह सुनाया। तब राजा ने हे रानी! यदि फड़ापेन की कृपा बनी रही तो हमें अवश्य पुत्र फल प्राप्त होगा। क्योंकि प्रातः काल के समय दिखाई देनेवाला सपना कभी झूठा साबित नहीं होता। कहा,

फड़ापेन की कृपा से हीर्वा माता को छटे वर्ष के दौरान गर्भधारणा हुई। एक सुयोग्य पुत्र प्राप्त हो जिसमें संपूर्ण कोया वंशीय गण्डजीवों की सेवा करने की चाहत एवं क्षमता हो, ऐसी मनोकामना लेकर वह प्रतिदिन फड़ापेन शक्ति की उपासना करने लगी। एक दिन उसे उंबर के फल खाने की इच्छा हुई। वह धूपकाले का समय था। धूपकाले में तोया वृक्ष को बहुत फल होते हैं। वह अपने राजमहल के उद्यान में जहां पर तोया पेड़ था, वहां अपने मिटठू को सात लेकर गई। वह कोया वंशीय गण्डजीवों की बोली भाषा जानता था। हीर्वा माताने मिटठू को पके हुए तोया फल अपनी चोंच से काट गिराने को कहा। आज्ञा पाकर मिटठू पेड़ पर जा बैठा तथा पके हुए तोया फल एक एक कर काट गिराना आरंभ किया। बड़े मुश्कित से मिटठू के द्वारा तीन चार फल काट गिराए गए थे कि ठीक उसी वक्त वृक्ष के बील से एक नाग (भूजंग) फन फैलाकर फू फूं करते हुए मिटठू की दिशा में डाल पर रेंगता हुआ बढ़ आया। उसे देखकर मिटठू नीचे उड़ आया। वृक्ष पर भूजंग को देखकर ही माता को बहुत ही आश्चर्य हुआ क्योंकि वह अपने पूंछ से तोया फल नीचे गिरा रहा था। भूजंग द्वारा गिराए गए फल कैसे खांए यह सवाल हीर्वा माता के सामने उपस्थित हो गया। वह चुप चाप भूजंग को निहारने लगी। तब मिटठू ने माताजी से कहा, "हे माताजी! भूजंग अपने संभू शेक के गले का हार है, उसके द्वारा गिराए गए फल खाने से विषबाधा नहीं होगी, बल्कि इन फलों से संभू शेक का आशीर्वाद अपने गर्भस्त शिशु को प्राप्त होगा। हे माताजी!
तुम्हारी इच्छा पूर्ति हेतु वह फल नीचे गिरा रहा है, कृपया इन फलों को सेवन किजिए।" मिटवू के मूह से यह वचन सुनकर हीर्वा माता को और भी आश्चर्य हुआ। वास्तव में भूजंग अपने पूंछ से फल गिराता जा रहा था मूह से नहीं, इसलिए विषबाधा होने का सवाल ही नहीं था। यह सोचकर हीर्वा गाताने जी भर कर पके हुए तोया फल खाएं। अपनी इच्छा तृप्त हो जाने पर उसने भूजंग को अभिवादन किया और आंख मूंद कर बुढ़ादेव को स्मरण कर उसने कहा, "हे फड़ापेन ! मेरी कोख से ऐसे पुत्र रत्न का जन्म हो, जिसमें सभी जीवों, पशु पक्षियों, प्राणिमात्रों एवं दुश्य अदृश्य जीवों का सुख दुःख उनकी बोली भाषा, हलचल एवं इंद्रियों के हावभाव से समझने की क्षमताएं हो।" ऐसी प्रार्थना कर ही माता अपने मिटट्टू को साथ लेकर राजमहल लौट आई।

संयोग की बात यह थी कि उस वक्त हीर्वा माताजी की गर्भावस्था का समय पूर्ण हो चुका था। उसी रात्रि को उसके गर्भ का शिशु सपने में आया और कहने लगा, “हे माताजी! तुमने मुझे अपनी कोख में जगह प्रदान कर बहुत उपकार किया है, अब मेरा समय पूरा हो चुका है, इसलिए मुझे संसार में पदार्पण करने का मार्ग बताईए सभी जीवगण्ड जिस मार्ग से जन्म लेते हैं उसी मार्ग से मेरा जन्म हुआ तो मुझमें और अन्य प्राणिमात्राओं में कुछ भी अंतर नहीं रहेगा। यदि मैं तुम्हारे नाक से जन्म लेता हूं तो लोग मुझे सर्दी कहेंगे, कान से जन्म लेता हूं तो कानूला कहेंगे, मलद्वार से जन्म लेता हूं तो घ्राण कहेंगे, मूत्रद्वार से जन्म लेता हूं तो पेशाब कहेंगे, तथा मुख से जन्म लेता हूं तो थूक कहेंगे। इसलिए हे माताजी! तुम मुझे कोई ऐसा मार्ग बताईए जो इन सभी मार्गों से परे है।" अपने कोख के शिशु द्वारा किए गए सवाल पर ही माता सोचने पर मजबूर हो गई। अंत में उसने गर्भ के शिशु से कहां, "हे पुत्र! मेरी यह जो काया है उसमें केवल दस द्वार है, और उनमें से जन्म लेने का मात्र एक ही मार्ग है। जिस मार्ग से तुम मेरी कोख में समा गये हो, उसी मार्ग से तुम जन्म ले सकते हो। क्योंकि मैं नहीं जानती कि तुम किस मार्ग से कोख में समा गए हो। जन्म लेने का और कोई मार्ग है तो वह मैं नहीं जानती। इसलिए तुम्हें जिस मार्ग से भी जन्म लेना है स्वयं तय कर सकते हो। तुम्हारे लिए मैं अपनी कुर्बानी देने तैयार हूँ।"

हीर्बा माताजी का जवाब सुनकर बालक ने अपने माताजी के शीष को द्वीभाजित कर जन्म ले लिया। परंतु आश्चर्य की बात यह थी कि जन्म लेने के पश्चात द्वीभाजित सिर फिर से जैसे थे जुड़ गया। कुछ समय पश्चात जब हीर्वा माताजी को होष आया तब उसने एक नन्हेसे बालक को अपने बिस्तर पर हाथ पैर हिलाते हुए पाया। चकित होकर उसने अनपे गर्भ को देखा। सभी कुछ साधारण था। यह समसचार जब पुलशीव राजा को कह सुनाया गया तब उसे भी बहुत ताज्जूब हुआ।

इसतरह एक अद्भूत एवं अलौकिक शक्तिशाली पुत्र रत्न पाकर पुलशीव राजा को एक ओर आश्चर्य तो हुआ ही, दूसरी ओर खुशी की कोई सीमा नहीं थी। उसका जन्मोत्सव सम्पूर्ण गण्डराज्य में हर्षोल्लास के साथ धूमधाम से मनाया गया। बालक का नाम कुपार रखा गया। कुपार इस गोंडीशब्द का अर्थ जूड़ा ऐसा होता है। सिर के बालों का जूड़ा जहां पर बांधा जाता है वहीं से उस बालक ने सिर को द्वीभाजित कर जन्म लिया था। इसलिए उसका नाम कुपार रखा गया। कुपार का दूसरा अर्थ ऐसा शुध्द तत्त्व होता है जो कभी अशुध्द नहीं होता। इन जनश्रुतियों से कुपार लिंगो का जन्म अप्राकृतिक लगता हैं। हो सकता है लिंगो को अद्भूत एवं अलौकिक बताने हेतु ऐसे अप्राकृतिक किवदान्तियों का सहारा लिया गया हो। लिंगों के जन्म से संबंधित ऐसे ही अनेक कथासार कोया वंशीय गोंड समुदाय में आज भी प्रचलित हैं।

उक्त तीनों कथासारों पर से पहांदी कुपार लिंगो का जन्म भलेही अद्भूत रुप से हुआ हो, वह कोया वंशीय गोंडी गोंदोला के सगावेन गण्डजीवों का गोंडी पुनम गुरु मुखिया था, इसलिए उसके जन्म से संबंधित कथाओं की अपेक्षा उसके द्वारा प्रस्थापित किए गए गोंडी पुनेमी मूल्यों का महत्व अधिक है। अध्यन के दौरान हमें अनेक बुजूगों द्वारा यह बताया गया कि जिस वक्त कुपार लिंगो का जन्म हुआ उस वक्त जोरों से हवा बह रही थी, आकाश में काले काले बादल अचानक छा गए, बिजली कौंदने लगी थी, और बादलों की गर्जना होने लगी थी। तेज हवा के स्पर्श से लंगड़े लूले व्यक्तियों का अपंगत्व दूर हो गया, बिजली की चमक से अंघों की आंखों में रोशनी आ गई, बादलों की गर्जना से बहरे व्यक्तियों के कान खूल गए और साफ सुनाई देने लगा तथा मूसलाधार वर्षा में भीगने पर त्वचारोगियों का रोग दूर हो गया। इसतरह जन्म लेते ही कुपार लिंगोने कोया वंशीय गण्डजीवों की सेवा करना आरंभ कर दिया। इसलिए गोंडी पुनेम का जय सेवा दर्शन, जय जोहार दर्शन अत्यंत मौलिक, महत्वपूर्ण, सर्व कल्याणवादी एवं सेवाभावी है। सगावेन गण्डजीवों का सर्वकल्याण साध्य करना ही उसका अंतिम लक्ष है, इस बात की पुष्टि होती है।
 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

गोंड जनजाति :- भारतीय आदिवासियों का सबसे बड़ा समुदाय

 1. उत्पत्ति और वितरणः गोंड लोग भारत के सबसे बड़े स्वदेशी समुदायों में से एक हैं। माना जाता है कि उनका एक लंबा इतिहास है और माना जाता है कि वे गोंडवाना क्षेत्र से उत्पन्न हुए हैं, इस तरह उन्हें अपना नाम मिला। वे मुख्य रूप से भारत के मध्य और पश्चिमी हिस्सों में रहते हैं, विशेष रूप से मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, तेलंगाना, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में। 2. भाषाः गोंड लोग मुख्य रूप से गोंडी भाषा बोलते हैं, जो द्रविड़ भाषा परिवार से संबंधित है। हालाँकि, पड़ोसी समुदायों के साथ विभिन्न प्रभावों और बातचीत के कारण, कई गोंड लोग हिंदी, मराठी, तेलुगु आदि क्षेत्रीय भाषाओं में भी धाराप्रवाह हैं। 3. संस्कृति और परंपराएँः कला और शिल्पः गोंड कला गोंड संस्कृति की एक विशिष्ट विशेषता है। इसकी विशेषता जटिल प्रतिरूप, जीवंत रंग और प्रकृति, जानवरों और दैनिक जीवन के चित्रण हैं। इस कला को भारत के भीतर और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली है। संगीत और नृत्यः गोंड लोगों में संगीत और नृत्य की समृद्ध परंपरा है। उनके गीत और नृत्य अक्सर प्रकृति, कृषि और अनुष्ठानों के साथ उनके संबं...

कोणार्क मंदिर को गोंड शासकों ने बनवाया

कोणार्क मंदिर को गोंड शासकों ने बनवाया अजय नेताम कोणार्क मंदिर उड़ीसा के प्रवेश द्वार पर हाथी पर सिंह सवार (गजाशोहुम) गोंडवाना का राज चिन्ह है, इस मंदिर को आंध्रप्रदेश विजयनगरम के चार देव गंग वंशी नेताम गोंड राजा नरसिंह देव ने बनवाया है। रावेण (निलकंठ) गणडचिन्ह धारक यदुराय का शासन काल जनरल कनिधाम के अनुसार 382 ई., वार्ड के अनुसार 158 ई. स्लीमेन के अनुसार 358 ई. और रूपनाथ ओझा के अनुसार 158 ई. है। एकलौते इतिहासकार जिन्होंने सिंधु यदुराय बाहर पहरा दे रहे थे, उसी लिपी (सिंधु सभ्यता) को गोंडी में पढ़ समय उनके सामने से हाथियों का झुंड के बताया और बाद में उसपर एक भागते हुए निकला, झुंड के सबसे किताब सिंधु लिपी का गोंडी में आखिरी हाथी में एक सिंह सवार था उद्घाचन भी निकाला) के अनुसार जो उसका शिकार कर रहा था। गोंडी इतिहासकार डॉ मोतीरावण कंगाली (दुनिया के पहले और शायद यदुराय पहले राजा रतनसेन कछुआ यदुराय जीववादी, प्रकृतिवादी और गणड़चिनह धारक के यहां नौकरी बहुत ही बुद्धिमान सैनिक था जब यदुराय करता था, एक बार राजा रतनसेन ने ई. सं. 358 में राज्य सत्ता संभाली शिकार करने जंगल गये तो रात होने त...

"#पिट्टे" मतलब #गोंडी लैग्वेज में *चिड़िया " ... गोंडी लैग्वेज में गीत के लिए शब्द है "#पाटा" और " कहानी" के लिए शब्द है "#पिट्टो" .... अर्थात जो प्रकृति की कहानी बताती है वह जीव "पिट्टे" कहलाता है

GBBC:- The Great Backyard Bird Count-2022   (18 से 21 फरवरी 2022 तक)  "#पिट्टे" मतलब #गोंडी लैग्वेज में *चिड़िया " ... गोंडी लैग्वेज में गीत के लिए शब्द है "#पाटा" और " कहानी"  के लिए शब्द है "#पिट्टो" .... अर्थात जो प्रकृति की कहानी बताती है वह जीव "पिट्टे" कहलाता है....        है न रोचक... ऐसी ही है  पृथ्वी की इस पहली भाषा का रहस्य... ज्ञान से भरपूर है  प्रकृति के पुजारियों हम इण्डीजीनसो की  भाषा.... #पिट्टे याने चिड़िया याने "Birds "  की दुनिया में लगभग 10,000 प्रकार की प्रजाति का होना वैज्ञानिकों के द्वारा बताया गया है इनमें से भारत में लगभग 1300  प्रकार के पाऐ जाते हैं..वंही छत्तीसगढ़ राज्य में भी 400 से अधिक प्रजातियों के पक्षी पाये गये हैं ! . चूकिं  पक्षियो की कुछ प्रजातियों को हम #कोयतोरो(Indigenous) ने टोटम भी बनाया है... पेन पुरखों की तरह पुजनीय भी बनाया है... महान वैज्ञानिक #पहांदी_पारी_कुपार_लिंगों व महान मौसम गणनाकार...